मेरे यार की ,गुज़ारिश कि, लिखता रहूँ मैं उसे ।
पर, किसी आशार में, उसका कहीं ,नाम भी न हो ।
और महकें, हर लफ़्ज़, उनके लज्जते-हुस्न से,
मगर चर्चा उनका ,कहीं सरे-आम भी न हो ।
मेरा हुनर ,तो हो बुलंद, इस क़दर मगर —
मेरे फ़न का यारों ,ऐसा , इंतहान भी न हो ।
नज़्म में,उनकी शख़्सियत,का एहसास भी मिले,
पर उनका नाम,कहीं पर,बदनाम भी न हो ।
उसके आलम का, इतमाम तक,इलाम हो मगर –
ऐसा इंतज़ाम कि,उस पर कोई,इल्ज़ाम भी न हो ।
नए दौर के रंगरेज़ सा ,मैं ऐसा रंग दूँ उन्हें ।
तस्वीर उनकी- और किसी को, गुमान भी न हो ।
हर हर्फ़ में ,उनका ज़िक्रे-तमाम भी हो मगर —
किसी शै को ,उनकी कभी पहचान भी न हो ।
सुख़न ऐसा हो , की हासिल, मैं इतमाम करूँ —
मगर उनके दामन पर, इत्तिहाम भी न हो ।
मैं कैसे छुपा लूँ उन्हें ,अपने दिल की तहों में ,
और सासों में उनका, कहीं पर निशान भी न हो ।
मुझे कोई तो, ऐसा सलीक़ा, बख़्श दे इस रोज़,
पैग़ाम भी मुकम्मल हो , वो परेशान भी न हों ।
मैं लिखूँ ऐसे, की दुनिया उसे, जाने मुझी से-
जबकि जानता हूँ ,‘वो’ मेरा इनाम भी न हो ।
दिखें मुझे ,और चाहे सबसे ,बेनाम रहें वो ,
और बंद कभी ,मेरा ये ,कलाम भी न हो ।
वो पढ़कर,इस ग़ज़ल को,सीने से भी न लगाएँ –
कहीं ,इस क़दर, वो कभी ,बे-ईमान भी न हों ।
— इस कविता के लेखक सौरभ तिवारी उप महानिदेशक दूरसंचार मंत्रालय, भारत सरकार