Edit-Rashmi Sharma
जयपुर 02 जुलाई 2020 – अति-प्राचीन काल से, हम हर दर्द और संकट के समय में एक पेशे के लिए ऋणी रहे हैं, वह है डॉक्टर। उनकी स्थिति के परे वे एक अमूल्य संसाधन हैं। पिछले कुछ समय से भारतीय डॉक्टरों को सबसे अच्छा माना जाता है। चाहे वो आयोडीन की कमी जैसे सामान्य मुद्दों से निपटने की बात हो या कईं घंटों तक चलने वाली जटिल सर्जरी को करना हो। हमारे डॉक्टरों ने एक ‘अच्छी स्वास्थ्य सेवा’ कैसी दिखना चाहिए, की छवि को पुनःपरिभाषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
विशेष रूप से अब, जब लोग कोविड-19 महामारी के दौरान संक्रमण से बचाव और उपचार के लिए डॉक्टरों और मोर्चा संभाले हुए अन्य स्वास्थ्य कर्मियों को देखते हैं, हमारे दिन-प्रतिदिन के जीवन में एक डॉक्टर की भूमिका का महत्व पहले से बढ़ा ही है। सभी अच्छे कार्यों के बावजूद, मरीजों की अपने डॉक्टरों से सबसे आम एक ही शिकायत है कि वो अपॉइंटमेंट के दौरान उन्हें बहुत कम समय देते हैं। भारत में अधिकांश डॉक्टर अत्यधिक व्यस्त हैं, उनके पास अपनी क्षमता से अधिक काम हैं, जो मरीजों को कम समय देने का एक कारण हो सकता है; हालांकि, एक डॉक्टर जिसमें सुनने का अच्छा कौशल है, बिना किसी दवा का इस्तेमाल किए बिना अपने मरीज की 50 प्रतिशत बीमारी ठीक कर देता है।
भारत के प्रमुख स्वास्थ्य विशेषज्ञ और एम्स में सामुदायिक चिकित्सा के पूर्व विभागाध्यक्ष, डॉ. चंद्रकांत एस. पांडव के अनुसार, “सबसे बड़ी समस्याओं में से एक जो मैंने व्यक्तिगत रूप से डॉक्टरों में देखी है, वह सुनने के कौशल की कमी है। रोगी क्या महसूस करता है या क्या कहना चाहता है, यह सुनने के बजाय, वह निर्धारित समय में से 80 प्रतिशत खुद बोलने में इस्तेमाल कर लेते हैं। निदान शुरू करने से पहले चिकित्सकों को अपने रोगी को सुनने का तरीका सीखने की जरूरत है; इससे काफी मूल्यवान समय बच जाएगा।”
समय के साथ, कईं डॉक्टरों ने इसे अनुभव किया है और वे इसे लेकर परेशान भी हुए। रोगियों का उपचार करने के लिए प्रभावी संचार कौशल बेहद आवश्यक है, क्योंकि वो पहले से बहुत परेशान और पीड़ा में होते हैं। हालांकि भारतीय डॉक्टरों ने चिकित्सा विज्ञान की सभी विधाओं में उत्कृष्टता प्राप्त की है, चाहे वह एलोपैथी हो, प्राकृतिक चिकित्सा हो या होम्योपैथी हो। लेकिन उनमें सहानुभूति और समवेदना की कमी प्रतीत होती है, जो एक व्यथित व्यक्ति से व्यवहार के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होती है।
अपनी बात जारी रखते हुए डॉ.पांडव कहते हैं, “इस मुद्दे को हल करने के लिए, सभी चिकित्सा संस्थानों को अपने नए स्नातक डॉक्टरों में संचार कौशल विकसित करने की आवश्यकता है ताकि परिवर्तन आधारभूत रूप में आए। इस बात पर ज़ोर देने की जरूरत है कि सभी मेडिकल छात्र, भारतीय गांवों में लगभग तीन महीने बिताएं, ताकि वे जमीनी स्तर पर लोगों से बातचीत करने के गुर सीख सकें। गांव से जुड़ा यह पाठ्यक्रम अत्यंत आवश्यक है।”
वृद्ध चिकित्सा विशेषज्ञ और दिल्ली मेडिकल एसोसिएशन (डीएमए) के अध्यक्ष निर्वाचित, डॉ. जी.एस. ग्रेवाल, ने इस विषय पर विस्तार से बताया, “कुछ समस्याओं और बाधाओं, जिनका अधिकतर युवा स्नातकों को सामना करना पड़ता है, एक बाधा जो उन्हें करियर में बाद में अनुभव होती है, वह है मरीजों से संवाद स्थापित न कर पाना। मेडिकल कॉलेज में पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी है और ज़्यादातर मरीज़ हिंदी या स्थानीय भाषा में बात करते हैं। बीमारियों से संबंधित कईं शिकायतों का वर्णन करने के लिए उनके पास आम बोलचाल के शब्द होते हैं, इसलिए कईं बार उचित संचार की कमी के कारण डॉक्टर सही बीमारियों को पकड़ नहीं पाते, जिससे मरीजों को हताशा का सामना करना पड़ता है।”
जन स्वास्थ्य के लिए समर्पित, हील फाउंडेशन के संस्थापक, डॉ. स्वदीप श्रीवास्तव, इसी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, “एक डॉक्टर के लिए अच्छा श्रोता बनना उसके निदान या रोग के लक्षणों को पहचानने, अन्य ज्ञान और अभ्यास कौशल से अधिक महत्वपूर्ण है। यह भारतीय परिदृश्य में बहुत प्रासंगिक है, जहां डॉक्टर और रोगी का अनुपात विश्व में सबसे कम में से एक है।”
संचार कौशल की कमी एक ऐसा महत्वपूर्ण मुद्दा है, जिसके लिए तत्काल विशेषज्ञ देखभाल की आवश्यकता है, इसके अलावा, कईं अन्य मुद्दे भी भारतीय स्वास्थ्य प्रणाली के लिए चिंता का विषय हैं। हमारे देश का प्रत्येक सार्वजनिक अस्पताल या औषधालय बेड की कमी के कारण बीमार लोगों की लंबी-लंबी कतारों का गवाह है। यही एक कारण है कि विकासशील राष्ट्रों में चिकित्सा सेवाएं विकसित राष्ट्रों की तुलना में बदतर हैं। विकासशील देशों में डॉक्टर प्रत्येक मरीज को केवल पांच मिनिट का समय दे पाते हैं, जबकि विकसित देशों में डॉक्टर अपने मरीजों से आधा से एक घंटा तसल्ली से बात कर उनकी समस्याएं सुनते हैं!
डॉ. स्वदीप श्रीवास्तव कहते हैं, “इस तरह के परिदृश्य में, अधिकांश डॉक्टर मरीज़ की बात पूरी तरह सुनते भी नहीं हैं और प्रिस्क्रिप्शन लिखना शुरू कर देते हैं। जिसके परिणामस्वरूप निदान भी प्रभावित होता है और उपचार भी ठीक तरह से नहीं हो पाता है।”
डॉक्टर को भगवान के समकक्ष मानने वाली एक अन्य परंपरा, जो भारत में काफी प्रचलित है पर टिप्पणी करते हुए डॉ. श्रीवास्तव कहते हैं, “ऐसे कुछ डॉक्टरों का अहं अपने मरीजों और उनके परिजनों की बात सुनने के बीच में आ जाता है। और कईं बार इसका खामियाजा मरीज को भुगतना पड़ता है और वो उपचार से बिल्कुल संतुष्ट न होते हुए भी शिकायत नहीं कर पाते हैं, क्योंकि वो डॉक्टर को भगवान मानते हैं। ”
भारतीय शिक्षा प्रणाली पूरे विश्व में कुछ बहतरीन, सबसे शानदार चिकित्सकों और सर्जनों को तैयार करती है। थोड़ी सहानुभूति और अपने रोगियों को सुनने की उनकी क्षमता बढ़ाने से इन डॉक्टरों को अपने मरीजों की बीमारी को और बेहतर तरीके से समझकर प्रिस्क्रिप्शन लिखने में मदद कर सकती है!