Edit-Dinesh Bhardwaj
जयपुर 15 सितंबर 2020 – किसी क्षेत्रीय भाषा के लिए सम्मान की मांग करना और इसके लोकतंत्र को बढ़ावा देने के लिए आवश्यक है कि हम अन्य भाषाओं को भी पढ़े, सम्मान दें और ज्ञान प्राप्त करें। यदि हम अंग्रेजी के बजाय किसी अन्य भाषा का बढ़ावा देना चाहते हैं, तो हमें उस भाषा विशेष के विशाल साहित्य को जानना होगा। यह कहना था नई दिल्ली के हिंदू कॉलेज में हिंदी विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर, डॉ. पल्लव का। वे हिंदी दिवस के अवसर पर सोमवार को जवाहर कला केंद्र(जेकेके) के फेसबुक पेज पर आयोजित ‘हिन्दी भाषा में लोकतांत्रिकता’ विषय पर ऑनलाइन परिचर्चा में संबोधित कर रहे थे। यह आयोजन कला, साहित्य, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग, राजस्थान सरकार और जवाहर कला केंद्र के संयुक्त तत्वावधान में किया गया।
उन्होंने आगे कहा कि हिंदी भाषा में खड़ीबोली लगभग 200 साल पुरानी है और बेहद नई है । इसकी जड़ें हमारी संस्कृति और अन्य भाषाओं जैसे संस्कृत, उर्दू, फ़ारसी आदि में निहित हैं। भारतीय लोकतंत्र की तरह हिंदी भाषा में भी उदारता है। महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए गंभीर प्रयास किए थे। स्वतंत्रता के बाद अगर हम हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की बहस को याद करें, तो हमें याद होगा कि दक्षिण के लोगों ने इस कदम का विरोध करते हुए कहा था कि किसी एक भाषा को राष्ट्रभाषा नहीं बनाया जा सकता। लोकतांत्रिक भारत के निर्माता — जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, गोविंद बल्लभ पंत सभी दूरदर्शी थे। उन्होंने ‘तीन-भाषा फॉर्मूला’ तैयार किया, जिसमें हिंदी भाषी राज्यों में, हिंदी, अंग्रेजी और एक आधुनिक भारतीय भाषा (अधिमानत: दक्षिणी भाषाओं में से एक) का अध्ययन और गैर-हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी, अंग्रेजी और एक क्षेत्रीय भाषा का अध्ययन शामिल था।
परिचर्चा में राजस्थान विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर, डॉ. विशाल विक्रम सिंह ने कहा कि कोई भाषा शून्य में उत्पन्न नहीं होती, यह सामाजिक समूहों अथवा दो इकाइयों के मध्य संवाद से उत्पन्न होती है। जब देश का एकमात्र राष्ट्रीय लक्ष्य स्वतंत्रता हासिल करने का था, तब स्वतंत्रता आंदोलन के नायकों ने इस उद्देश्य के लिए एक ही भाषा में संवाद करने की आवश्यकता महसूस की, जो कि हिंदी भाषा थी। इस दौर में हिंदी भाषा को गैर-हिंदी भाषी क्षेत्रों के साथ-साथ बंगाल, पंजाब, हैदराबाद जैसे अन्य क्षेत्रों के लोगों का भी प्रतिनिधित्व प्राप्त था। इन सभी लोगों के लिए हिंदी भाषा उनकी भावनाओं की प्रतिनिधि थी। शायद इसी कारण से हमारे पूर्वजों ने स्वतंत्रता के बाद हिंदी को भारत की आधिकारिक भाषा का दर्जा देने का निर्णय लिया था।