Editor-Manish Mathur
जयपुर 01 फरवरी 2021 – हमारी एक सबसे बड़ी गलती के कारण ही आज तक हम अपने परम चरम लक्ष्य आनंदप्राप्ति से वंचित हैं और आज भी माया के थपेड़े सहते हुए निरंतर दुःख भोग रहे हैं। ये गलती क्या है ? लोकरंजन की भावना, स्वयं को अच्छा कहलवाने की प्रबल चाह अर्थात् लोग हमें अच्छा समझें, इसी चाह में हमने अपने अनंतानंत जन्म व्यर्थ गँवा दिए। हर जन्म में हमने दुनिया को रिझाने का, उनके बीच में अच्छा कहलवाने का ही निरंतर प्रयत्न किया कि लोग हमें किसी प्रकार अच्छा कहें, हमसे प्रभावित हों। लेकिन हमने कभी वास्तव में अच्छा बनने का प्रयास नहीं किया अन्यथा आज हमारी ये दयनीय दशा न होती, हम अपने लक्ष्य को प्राप्त कर चुके होते।
हमें इस बात को गंभीरता पूर्वक समझने का प्रयत्न करना है। हम अपना सारा समय, आत्मशक्ति इसी में नष्ट कर रहे हैं कि ये दुनिया वाले हमें अच्छा कहें, अच्छा समझें। जबकि ये असंभव है। किसी भी युग में संभव नहीं था तो आज क्या होगा ?
हम अच्छा बनने का नहीं, केवल अच्छा कहलाने का प्रयास करते हैं। इसके परिणाम स्वरूप हमारा जीवन दंभमय हो जाता है। खोखला हो जाता है। प्रतिक्षण एक्टिंग, बनावट, एटीकेट के ही चक्कर में हम परेशान रहते हैं, उसी में उलझकर रह जाते हैं। इसका आधा प्रयत्न भी अगर हमने आज तक वास्तव में अच्छा बनने के लिए किया होता तो हम अच्छे बन गए होते।
ज़रा सोचकर देखिये कि संसार में अच्छे एवं बुरे दो प्रकार के लोग हैं और सदा रहेंगे –
द्वौ भूतसर्गौलोकेऽस्मिन् दैव आसुर एव च।
गीता (16-6)
ईश्वर के क्षेत्र में चलने वाले अच्छे हैं और संसार की ओर चलने वाले बुरे हैं। इन दोनों ही पार्टी के लोग एक दूसरे के विरोधी होने के कारण एक दूसरे की बुराई करते हैं। यह स्वाभाविक है। अगर हम ईश्वर की ओर चलेंगे तो संसार वाले बुराई करेंगे और संसार की ओर चलेंगे तो ईश्वरीय-क्षेत्र वाले हमारी निंदा करेंगे। तो जब दोनों ओर से खिलाफत होनी ही है तो क्यों न हम ईश्वरीय क्षेत्र में आगे बढ़कर वास्तव में अच्छा बनने का ही प्रयत्न करें जिसके पश्चात पुनः बुरा बनने की नौबत ही न आए। हम सदा-सदा के लिए भगवत्प्राप्ति करके ईश्वरीय दिव्य गुणों से युक्त हो जायें, वास्तविक अच्छे बन जायें, आनंदमय हो जायें।
संसार को तो हम प्राण अर्पित करके भी कभी रिझा नहीं सकते, कभी अपने अनुकूल नहीं कर सकते। यह संसार कभी भगवान और महापुरुषों के ही अनुकूल नहीं रहा, उनमें भी छिद्रान्वेषण करता रहा, सदा से दोष देखता रहा तो हम इसकी चिंता क्यों करें ? हम इसे संतुष्ट करने का व्यर्थ परिश्रम क्यों करें ?
आप लोगों ने एक कथानक भी सुना होगा। एक बार शंकर जी एवं पार्वती जी दोनों नंदी बैल के साथ संसार में भ्रमण करने निकले। संसारियों ने प्रत्येक स्थिति में उनकी आलोचना की। जब शंकर जी नंदी पर सवार थे एवं पार्वती जी पैदल थीं तब शंकर जी की आलोचना हुई। जब पार्वती जी नंदी पर चढ़ीं तो उनकी आलोचना हुई। जब दोनों चढ़े तो दोनों की क्रूरता की निंदा हुई। जब दोनों पैदल चले तो मूर्ख कहे गए। जब दोनों ने नंदी को ही अपने कंधों पर टाँग लिया तो महामूर्ख कहे गये।
अस्तु, कहने का तात्पर्य यही है कि हमें इस दुनिया को रिझाने में, अच्छा कहलाने में अपने समय एवं आत्मशक्ति का अपव्यय नहीं करना चाहिए अपितु सत्यमार्ग का अवलम्ब लेकर हरि-गुरु के प्रति शरणागति बढ़ाते हुए वास्तव में अच्छा बनने का ही निरंतर प्रयत्न करना चाहिए तभी हम अपना परम चरम लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं।